Saphala Ekadashi Vrat Katha
Saphala Ekadashi Vrat Katha- सफला एकादशी
Saphala Ekadashi Vrat Katha- महात्मय
सफला एकादशी का व्रत अपने नामानुसार मनोनुकूल फल प्रदान करने वाला है| भगवान श्री कृष्ण इस व्रत की बड़ी महिमा बताते हैं| इस एकादशी के व्रत से व्यक्तित को जीवन में उत्तम फल की प्राप्ति होती है और वह जीवन का सुख भोगकर मृत्यु पश्चात विष्णु लोक को प्राप्त होता है| यह व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी है|
Saphala Ekadashi Vrat Katha- सफला एकादशी व्रत कथा
सूत जी ने कहा है कि युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि माघ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या महात्मय एवं विधान है आप अनुग्रह करके हमें बताएं| युधिष्ठर के प्रश्न् को सुनकर श्री कष्ण ने कहा एक थे राजा महिष्मति उनके पांच पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र बहुत ही अधर्मी था | वह सदा नीच कर्म करता था | शास्त्रों में जो भी पाप कर्म बताये गये हैं वह उन सभी मे लिप्त रहता था | धर्मात्मा राजा अपने पुत्र के स्वभाव एवं व्यवहार से अत्यंत दुखी था | पुत्र के इस नीच कर्म को देखकर राजा ने उसका नाम लुम्भक रख दिया और उसे उत्तराधिकार से वंचित कर देश त्यागने का आदेश दिया| पिता द्वारा अधिकार से वंचित किये जाने एवं देश से बाहर निकाल दिए जाने पर लुम्भक धनहीन हो गया | जीवन की रक्षा के लिए तब लुम्भक ने राज्य में चोरी करना शुरू कर दिया | एक दिन कोतवालों ने उसे चोरी करते पकड़ लिया और राजा के समक्ष ले जाने लगे तब उसने अपने आपको राजकुमार बताया जिससे सैनिकों ने लुम्भक को मुक्त कर दिया | अब लुम्भक जंगल में कंद मूल, फल एवं पशु पक्षियों के मांस पर आश्रित रहने लगा | सौभाग्य से माघ महीने की कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि को उसे कुछ भी खाने को नहीं मिला और वह यूं ही सो गया लेकिन भूख के कारण उसे नींद भी नहीं आ रही थी | ऊपर से सर्दी का मसम था उसका शरीर ठंढ से अकड़ गया और वह अचेत हो गया | अगले दिन जब उसकी नींद खुली तब दिन के दो-पहर गुजर चुके थे | वह जल्दी जल्दी कंद मूल इकट्ठा करने निकल चला क्योंकि उसे लग रहा था कि अगर आज रात भी भूखा रहना पड़ा तो मृत्यु निश्चित है |
कंद मूल एवं फल इकट्ठा करते हुए कैसे सांझ ढल गयी लुम्भक को पता भी नहीं चला | जब वह अपने आश्रयदाता पीपल वृक्ष के पास पहुंचा तब काफी रात हो गयी थी और वह काफी थक भी गया था | इस स्थिति में उसने इकट्ठज्ञ किये गये फलादि को पीपल की जड़ में रख कर विष्णु का नाम लेकर सो गया लेकिन ठंढ़ ने उसे इस रात भी सोने नहीं दिया | सुबह आकाशवाणी हुई कि तुमने अनजाने ही सफला एकादशी का व्रत कर लिया जिसके पुण्य से तुम राजा बनोगे और पुत्र सुख प्राप्त करोगे | इस घटना के पश्चात, जंगल के जीवन से जब लुम्भक दुर्बल होता जा रहा था तो उसके मन में आया कि क्यों न फिर से चोरी किया जाय सो वह शहर की ओर चल पड़ा | संयोग कि बात है कि वह जिस घर में प्रवेश किया उसमें एक साधु रहता था | साधु के घर में उसे कुछ भी नहीं मिला लेकिन उसकी आहट से साधु की नींद खुल गयी और उसने उसे भोजन कराया और प्यार से बातें की | साधु की बातों एवं व्यवहार से प्रभावित होकर लुम्भक साधु के साथ ही रहने लगा | साधु की संगत और संस्कार ने उसके विचार एवं व्यवहार को बदल दिया और वह सदाचारी बन गया | राजकुमार का स्वभाव जब परिवर्तित हो गया तब उस साधु ने बताया कि वह साधु और कोई नहीं उसका पिता राजा महिष्मति है| महिष्मति ने अब लुम्भक को अपना उत्तराधिकारी बनाया और वह कई वर्षो तक धर्मानुसार शासन करता हुआ एक दिन अपने पुत्र को राज्य संप कर सन्यास ग्रहण कर श्री हरि की भक्ति में लीन हो गया और मृत्यु पश्चात मोक्ष को प्राप्त हुआ |
Saphala Ekadashi Vrat Katha- सफला एकादशी व्रत विधान
व्रत विधान के विषय में जैसा कि श्री कृष्ण कहते हैं दशमी की तिथि को शुद्ध और सात्विक आहार एक समय लेना चाहिए | इस दिन आचरण भी सात्विक होना चाहिए | व्रत करने वाले को भोग विलास एवं काम की भावना को त्याग कर नारायण की छवि मन में बसाने हेतु प्रयत्न करना चाहिए | एकादशी तिथि के दिन प्रात: स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर माथे पर श्रीखंड चंदन अथवा गोपी चंदन लगाकर कमल अथवा वैजयन्ती फूल, फल, गंगा जल, पंचामृत, धूप, दीप, सहित लक्ष्मी नारायण की पूजा एवं आरती करें | संध्या काल में अगर चाहें तो दीप दान के पश्चात फलाहार कर सकते हैं|
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